Importance of asanas in meditation, goal is not possible without it : ध्यान में आसन का बहुत महत्व है। इसके बिना अध्यात्म में लक्ष्य प्राप्ति संभव नहीं है। सामान्य रूप से आसन में जाकर ही ध्यान की शुरुआत होती है। आसनस्थ अर्थात स्व—स्थित, यही ध्यान का भी मूल है। हमारे अंदर चेतना का सागर है। लोग उस पर ध्यान देने के बदले भौतिक सुख के पीछे भागते रहते हैं। अंततः वे खाली ही रहते हैं। जब व्यक्ति अपनी आत्मा में निमज्जित हो जाएगा, वह रस को जान पाएगा। वही परमानंद है। उसे ही सच्चिदानंद ब्रह्म कहा जाता है। अभी हमारी आत्मा बीज में निहित है। वह कहने को तो मौजूद है लेकिन सुप्तावस्था में है। इसलिए उसके होने या नहीं होने से कोई अंतर नहीं दिखता है। हमारे अंदर चेतना का सागर है, उस तक ध्यान से ही पहुंचा जा सकता है।
ब्राह्मण का द्विज होना जरूरी नहीं लेकिन सभी द्विज ब्राहण हैं
चेतना में जाने की स्थिति को ब्राह्मणत्व या द्विज कहते हैं। अच्छा हो कि हम द्विज को ब्राह्मण कहें। क्योंकि सभी ब्राह्मण द्विज नहीं हैं लेकिन सभी द्विज ब्राह्मण हैं। ब्राह्मण के घर में जन्म लेने से कोई ब्राह्मण नहीं हो सकता। जब तक ब्रह्म से पैदा न हो तब तक कोई ब्राह्मण नहीं होता। जब तक ब्रह्म में निमज्जित न हो जाए, तब तक कोई ब्राह्मण नहीं होता। यही हमारे धर्म का मूल सिद्धांत है। इसके अनुसार हर व्यक्ति शूद्र के रूप में पैदा होता है। उनमें से कुछ ब्राह्मणत्व को पा जाते हैं। शेष जन्म-जन्मांतर के चक्र में फंसे रहते हैं। यह लक्ष्य प्राप्ति ध्यान से संभव है। ध्यान में आसन का बहुत महत्व होता है।
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हमारे अंदर चेतना का सागर है
हमारे अंदर चेतना का सागर है। वहां तक पहुंचने के लिए आध्यात्मिक चेतना जगाना जरूरी है। यह सभी धर्मों का सार है। इसे एक कथा से समझें। जीसस से निकोडैमस ने पूछा कि मैं कैसे तुम्हारे प्रभु के राज्य जा सकूंगा? जीसस ने कहा कि तुम मरो और फिर से जन्मो। तुम जैसे हो, ऐसे तो मिट जाओ और तुम जैसे हो सकते हो, वैसे फिर से पैदा हो जाओ। तभी तुम मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश कर सकोगे। मतलब साफ है कि बीज की भांति मिट जाओ और वृक्ष की भांति हो जाओ। बीज के वृक्ष बनने की प्रक्रिया डरावनी और कठिन है। जैसे एक शरीर के खत्म होने के बाद आत्मा का दूसरे नए शरीर में प्रवेश। यह तभी संभव हो सकेगा, जब हम ध्यान के माध्यम से चेतना के सागर में पहुंच जाएं।
हर जगह तर्क नहीं चलता
सभी जानते हैं कि पुराना जर्जर शरीर खत्म होगा तो नया स्वस्थ शरीर मिलेगा। इसके बाद भी मरने से सभी डरते हैं। बीज को भी ऐसा ही डर लगता है कि मैं मिट जाऊंगा। वह आगे देख नहीं पाता है। वह समझ नहीं पाता कि मिटने के बाद क्या होगा, वृक्ष बनेगा कि नहीं। अगर वृक्ष बन भी गया तो क्या फायदा? वह तो खत्म हो चुका होगा, तभी वृक्ष बनेगा। वह वृक्ष को देख और महसूस नहीं कर सकेगा। सच भी है कि बीज का वृक्ष से मिलन संभव ही नहीं है। जैसे तैरना सीखना हो तो पानी में उतरना ही होगा। गहरे पानी में भी जाना होगा। इसमें डूबकी लगने और फेफड़े में पानी जाने का भी खतरा रहता है। जो व्यक्ति इससे डरेगा, वह कभी तैरना नहीं सीख सकेगा। ऐसा ही ध्यान है। ध्यान में आसन का बहुत महत्व होता है।
क्रमशः