ब्रह्मचारिणी का मंत्र
दधाना करपदमाभ्यामक्षमालाकमंडलू।
देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा।
देवी के हर रूप से होता है एक ग्रह अनुकूल
मां दुर्गा हर संकट से मुक्ति दिलाकर भोग और मुक्ति देने में संभव है। आवश्यकता है उसके बारे में जानकारी होने और सही विधि से उपासना करने की। यहां मैं माता के हर रूप में निहित ग्रह शांति की शक्ति की जानकारी दे रहा हूं। माता का नौ रूप नौ ग्रहों को शांत कर अनुकूल कर देती हैं। शैलपुत्री की उपासना से चंद्रमा, ब्रह्मचारिणी से मंगल और चंद्रघंटा से शुक्र ग्रह अनुकूल होते हैं। कूष्मांडा की पूजा से सूर्य, स्कंदमाता से बुध और कात्यायनी से शनि को अनुकूल किया जा सकता है। शनि को कालरात्रि, राहु को महागौरी और केतु को सिद्धिदात्री की उपासना से नियंत्रित और अनुकूल करना संभव है। इस तरह आपने जाना कि दुर्गा का हर रूप करती हैं ग्रह की शांति।
वर्ष में चार नवरात्र
देश में चार नवरात्र का प्रचलन है। सभी नवरात्र सिद्धियों और कामना पूर्ति के लिए उपयोगी हैं। चारों नवरात्र ऋतुओं में परिवर्तन के साथ होती है। ये हैं- चैत्र, अश्विन, आषाढ़ और माघ। इन चारों में से आम भक्तों के लिए आश्विनी नवरात्र का सर्वाधिक महत्व है। बाकी साधना के लिए महत्वपूर्ण हैं। हालांकि पंजाब, हिमाचल व जम्मू में मैंने चारों नवरात्र में मंदिरों में भक्तों की भारी भीड़ देखी। उनका विश्वास है कि उस दौरान पूजा से उनकी हर मनोकामना पूरी होती है। वहां भक्तों का विश्वास और उत्साह देखते बनता है।
नवरात्र पूजन की कई विधियां
नवरात्रि को देश भर में मनाया जाता है। इसे विभिन्न समुदायों के लोग मनाते हैं। क्षेत्र और समुदाय के कारण उपासना की विधि में अंतर है। इनमें तीन मुख्य विधियां प्रचलित हैं। पहली विधि है-कात्यायनी कल्पतरु। दूसरी विधि है-भद्रकाली कल्पतरु। तीसरी विधि हैं-उग्रचंडा कल्पतरु। इनके अलावा शास्त्रों में दो और विधान की मान्यता है। इनमें पहला है-कालरात्रि विधान। दूसरे को-दुर्गोपासना कल्पद्रुमे कहते हैं। हर समुदाय और क्षेत्र में दुर्गा को सर्वशक्तिमान तो माना गया है लेकिन ग्रह शांति की जानकारी कम है। जबकि दुर्गा का हर रूप करती हैं ग्रह की शांति।
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कात्यायनी कल्पतरु विधि
श्वेतवाराह कल्प के अनुसार मां दुर्गा की दस भुजा है। उन्होंने महिषासुर का वध किया है। इसमें उन्हें कात्यायनी रूप में पूजा जाता है। इस विधि में प्रतिपदा को घटस्थापन किया जाता है। उसी समय दुर्गा उपासना शुरू की जाती है। प्रधान पूजा सिर्फ तीन दिन होती है। ये हैं- सप्तमी, अष्टमी और नवमी। षष्ठी शाम को विल्वशाखा तथा नवपत्रिकाओं को पूजन का निमंत्रण दिया जाता है। सप्तमी को उन्हें घर या पूजा स्थान पर लाकर स्थापित किया जाता है। सप्तमी से नवमी तक पूजा होती है। उस दौरान कात्यायनी का ध्यान व जप होता है। दशमी को विसर्जन किया जाता है।
भद्रकाली कल्पतरु विधि
नीललोहित कल्प में मां की षोडष भुजा लिखा है। उन्होंने भद्रकाली रूप में महिषासुर को मारा। लिंगपुराण भी इसे ही मानता है। उसमें पूजा विधि अलग है। भद्रकाली कल्प के अनुसार आश्विन कृष्ण पक्ष को ही पूजा प्रक्रिया शुरू करनी है। एकादशी को उपवास करें। द्वादशी को एकभुक्त करें। त्रयोदशी को नक्त भोजी (पूर्ण सात्विक भोजन) करें। चतुर्दशी को यंत्र या मूर्ति प्रबोधन करें। अमावास्या को पूजन करें। तब प्रतिपदा में घट स्थापित करें। फिर नौ दिन पूजा करें। उसमें देवी के नौ रूपों की जानकारी दी गई है। इसमें शैलपुत्री से लेकर सिद्धिदात्री तक हैं। इनमें दुर्गा का हर रूप करती हैं नौ ग्रहों की शांति।
उग्रचंडाकल्प विधि
इसमें भी कृष्ण पक्ष से ही प्रक्रिया शुरू होती है। आश्विन कृष्ण नवमी में आर्द्रा नक्षत्र हो तो श्रेष्ठ। अन्यथा नवमी के दिन करवाल में महामाया का मध्याह्न में प्रबोधन करें। उग्रचंडा का द्वात्रिशाक्षर मंत्र से पूजन और आवरण पूजा करें। अमावस्या तक इसी तरह पूजन करें। प्रतिपदा के दिन घटस्थापन करें। नवमी तक नव दुर्गा का पूजन करें। उग्रचंडाकल्प में नवदुर्गा का विवरण इस तरह है। पहला रूप रूद्र चंडा का है। दूसरा रूप प्रचंडा और तीसरा चंडोग्रा है। माता का चौथा रूप चंडनायिका व पांचवा चंडा है। छठे रूप में माता चंडवती हैं। सातवां रूप चंडरूपा, आठवां अतिचंडिका और नौवां उग्रचंडा है। इसमें भी दुर्गा का हर रूप करती हैं ग्रह की शांति।
कालरात्रि विधि
इस विधि का क्षेत्र अत्यंत व्यापक है। पूजा विधान के लिए आगे मंत्र देखें। कृष्णाषष्ठीसमारभ्य नवदुर्गाविधानवत् यो यथा कुरुते जाप्यं कालरात्रिरुदाहृता। इस मंत्र के अनुसार किसी भी माह में पूजा की जा सकती है। इसमें कोई निषेध नहीं है। सभी विधियों में पूजा दुर्गा की ही होती हैं।
अन्य विधि
दुर्गोपासना कल्पद्रुमे में कई विधियां हैं। पहली विधि के अनुसार इसे किसी भी माह कर सकते हैं। इसमें ध्यान पक्ष और तिथि का ही रखना है। शुक्लपक्ष की षष्ठी से शुक्ल चतुर्दशी तक कर सकते हैं। सिर्फ पितृपक्ष और सावन में परहेज किया जाता है। दूसरी विधि में भाद्रपक्ष का जिक्र है। भाद्रपद शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक व्रत करें। दशमी को विसर्जन करें। यह विधि उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में प्रचलिचत है। कालीविलास तंत्र में अलग विधि है। आश्विन कृष्णाष्टमी या नवमी को जब आर्द्रा नक्षत्र हो तो उस दिन गाजे-बाजे के साथ देवी की पूजा करें। इस मत के अनुसार इस तरह की पूजा के बिना फल नहीं मिलता है।